28 मार्च 2010
वार्ता
पटना। प्राधिकरण राष्ट्रीय राजमार्ग के अभियंता और प्रधानमंत्री स्वर्णिम चतुर्भज सड़क निर्माण योजना के परियोजना अधिकारी सत्येन्द्र दुबे की हत्या के मामले में विशेष अदालत ने तीन दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
उल्लेखनीय है कि बेहद ईमानदार, कर्मठ और निर्भीक अधिकारी के रूप में चर्चित रहे श्री दुबे की बिहार के गया शहर में 27 नवंबर 2003 को हत्या हुई जिसे लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर काफी हंगामा हुआ था और मामले की जांच केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंप दी गयी थी। हत्या के समय सत्येन्द्र प्रधानमंत्री स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क निर्माण योजना के परियोजना अधिकारी के रूप में गया जिले में तैनात थे। परियोजना पदाधिकारी के रूप में अपनी पदस्थापना के दौरान सत्येन्द्र ने विभाग में कथित रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार के संबंध में सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर सूचित किया था।
अचानक हुई उनकी हत्या के कारण इस बात की आशंका व्यक्त की गयी थी कि कहीं किसी साजिश के तहत उनकी हत्या न की गयी हो। इसी बात को लेकर मामला काफी चर्चित हुआ था। मामले की प्राथमिकी भी आपराधिक षड़यंत्र के तहत की गयी हत्या भारतीय दंड विधान की धारा 302 और 120 बी के तहत दर्ज की गयी थी।
अनुसंधान की जिम्मेदारी संभालने के बाद सीबीआई ने कई दृष्टिकोण से इस मामले की जांच की। इस दौरान भी यह मामला काफी चर्चित रहा और अखबारों की सुर्खियां बटोरता रहा। मामले की जांच के दौरान गया जिले के एक व्यक्ति की मौत को लेकर सीबीआई को भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था लेकिन ब्यूरो के वरिष्ठ पदाधिकारियों की देख-रेख में मामले की जांच जारी रही।
मामले की जांच के दौरान सीबीआई न केवल असली दोषियों तक पहुंचने में सफल रही बल्कि उसने सत्येन्द्र दुबे के लूटे गये सामान को भी बरामद करने में सफलता हासिल की।
जांच के बाद तीन सितम्बर 2004 को सीबीआई ने इस मामले में आरोप पत्र दाखिल किया तब भी यह मामला चर्चा का विषय बना।
सीबीआई ने मामले में छह लोगों को गिरफ्तार किया था, जिनमें से तीन लोगों का विचारण करने और एक अभियुक्त श्रवण कुमार को वायदा माफ गवाह बनाया था। दो अन्य अभियुक्तों के खिलाफ साक्ष्य नहीं पाया गया। सीबीआई ने अपनी जांच में पेशेवर चोरों और लुटेरों द्वारा लूटपाट के दौरान सत्येन्द्र दुबे की हत्या होने का मामला पाया था।
सीबीआई ने किसी आपराधिक षड़यंत्र के तहत सत्येन्द्र दुबे की हत्या किये जाने का सबूत नहीं पाया और भारतीय दंड विधान की धारा 302, 394 तथा शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत न्यायालय में आरोप पत्र दाखिल किया था।
अदालत में दाखिल आरोप पत्र और सुनवाई के दौरान गवाहों के बयान से जो मामला उभकर सामने आया उसके अनुसार सत्येन्द्र दुबे अपनी बहन की शादी की बातचीत के सिलसिले में गया से बाहर गये थे और घटना की रात्रि में गया रेलवे स्टेशन से अपने सरकारी आवास को लौट रहे थे कि गया परिसदन के नजदीक अपराधियों ने उन्हें घेर लिया और लूटपाट करने लगे। अभियंता दुबे के हाथ में एक अटैची थी और उसमें उसकी बहन की जन्म कुंडली और फोटो तथा कुछ अन्य जरूरी कागजात थे।
लुटेरों ने जब अटैची छीनने की कोशिश की तो अभियंता दुबे ने इसका विरोध किया। इसी बीच एक लुटेरे मंटू कुमार ने उन्हें पिस्तौल से गोली मार दी जिससे उनकी मौत हो गयी।
बिहार के मूल निवासी अभियंता सत्येन्द दुबे ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर से की। अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग अधिकरण में अभियंता के रूप में नौकरी प्राप्त की और बाद में उन्हें प्रधानमंत्री स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क निर्माण योजना में परियोजना अधिकारी के रूप में पदस्थापित किया गया था। हत्या के समय अभियंता दुबे गया जिले में पदस्थापित थे।
मामले की सुनवाई पटना व्यवहार न्यायालय में की गयी। मामले की सुनवाई पटना की कई सत्र अदालतों में हुई। सुनवाई के दौरान भी मामला कई बार चर्चा का विषय बना जब इस मामले का एक आरोपी कई बार न्यायालय परिसर से ही न्यायिक हिरासत से पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहा। बाद में पुन: उसे गिरफ्तार कर मामले की सुनवाई हुई।
मामले की सुनवाई के दौरान सीबीआई ने आरोपों को साबित करने के लिये 33 गवाहों का बयान अदालत में दर्ज करवाया।
सी.बी.आई. ने अपने पहले गवाह के रूप में वायदा माफ गवाह श्रवण कुमार को पेश किया जिसमें अभियंता श्री दूबे की लूट के दौरान हुयी हत्या का पूरा ब्योरा अदालत में पेश किया। सुनवाई के दौरान जब गवाह श्री दुबे के बारे में बोलते हुए काफी भावुक हो जाते थे तो कई बार न्यायालय का माहौल अत्यंत मार्मिक हो जाता था और गमगीन हो जाता था।
सीबीआई ने जिन गवाहों को न्यायालय में पेश किया उनमें अभियंता दुबे के भाई उनके सहपाठी और मित्र भी शामिल थे। सीबीआई ने न्यायालय में अभियंता दुबे के बरामद सामानों को भी न्यायालय में सबूत के तौर पर पेश किया जिसमें उनकी अटैची, उनकी बहन का जन्मकुंडली एवं अन्य जरूरी कागजात थे।
अंतत: मामला अपने अंतिम चरण की सुनवाई के दौरान त्वरित अदालत संख्या पांच के न्यायाधीश राघवेन्द्र कुमार सिंह की अदालत में आया।
सीबीआई की ओर से मामले की पैरवी जिला विधि सलाहकार ए.आर .अंसारी कर रहे थे जो सुनवाई के दौरान ही अवकाश प्राप्त कर गये। तब सीबीआई ने उन्हें इस मामले की पैरवी के लिये अपना विशेष लोक अभियोजक नियुक्ति किया जिन्होंने अंत तक इस मामले की पैरवी की।
वर्ष 2005 में अभियुक्तों के खिलाफ आरोप तय किये गये और पांच वर्षों की सुनवाई के बाद 20 मार्च 2010 को अदालत में मामले के तीनों अभियुक्तों को भारतीय दंड विधान की धारा 302 और 394 तथा अभियुक्त मंटू कुमार को अलग से शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत दोषी करार दिया।
वकील नागेन्द्र शर्मा की ओर से आज अदालत में यह बहस की गयी कि यह मामला विरलंतम से विरले मामलों की श्रेणी में नहीं आता है इसलिये इन्हें फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए। दोषियों की वकील के बहस से सहमत होते हुए अदालत ने तीनों दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि दोषियों को आजीवन कारावास की सजा दी जा रही है इसलिये अलग से अन्य धाराओं में कोई सजा नही दी गयी है।
तीनों दोषियों को आज जेल से लाकर अदालत में पेश किया गया। सजा सुनाने के बाद अदालत ने तीनों दोषियों को सजा भुगतने के लिये वापस जेल भेज दिया।
Courtesy:
its all bullshit....real perpetrators r hidden...those who have been caught r made to accept it as robbery ....
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